[ad_1]
ऐप पर पढ़ें
2024 के चुनाव में पीएम नरेंद्र मोदी और बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता की मुहिम को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तेज कर दिया है। उन्होंने अपने सहयोगी उप मुख्यमंत्री और राजद नेता तेजस्वी यादव के साथ बुधवार को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी से मुलाकात की।
लोकसभा चुनाव से साल भर पहले और खासकर तब जब विपक्षी एकता में खटास की खबरें आ रही हैं, तब यह मुलाकात कई मायने रखती हैं। माना जा रहा है कि इस मुलाकात और चर्चा में नीतीश कुमार को वैसे दलों को साधने की जिम्मेदारी दी गई है, जो कांग्रेस और बीजेपी से समान दूरी बनाए हुए हैं।
नीतीश के कंधों पर क्या जिम्मेदारी?
ऐसे दलों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, केसीआर की भारत राष्ट्र समिति, अरविंद केजरीवाल की आप और अखिलेश यादव की सपा प्रमुख है। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि डीएमके और एनसीपी जैसी सहयोगी पार्टियों को साथ लाने और रणनीति बनाने की जिम्मेदारी कांग्रेस को सौंपी गई है, जबकि अन्य समान विचारधारा वाली पार्टियों को एकसाथ लाने की महती जिम्मेदारी नीतीश के कंधों पर सौंपी गई है। नीतीश ने बाद में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से भी मुलाकात की।
चर्चा इस बात की भी है कि 1989 के चुनावों की तरह ही नीतीश कुमार सभी सहयोगी दलों को साथ लाकर बीजेपी के खिलाफ लड़ाई की अगुवाई कर सकते हैं। अगर नीतीश 1989 जैसी रणनीति बनाने में कारगर रहे तो वह OSOC फार्मूला लागू कर मौजूदा दौर के वीपी सिंह हो सकते हैं।
क्या है OSOC फार्मूला?
OSOC फार्मूला से मतलब One Seat One Candidate से है। यानी पूरा विपक्ष मिलकर सभी लोकसभा सीटों पर यह तय कर ले कि कौन सी सीट पर कौन सा उम्मीदवार सबसे उपयुक्त है। उसके बाद उसे ही विपक्ष के अकेले उम्मीदवार के रूप में वहां खड़ा किया जाय।
1989 के आम चुनावों में वीपी सिंह ने तत्कालीन कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार के खिलाफ सभी विरोधी दलों को एक मंच पर लाकर राष्ट्रीय मोर्चा का गठन किया था। वह इस मोर्चे के संयोजक थे, जबकि एनटी रामाराव इसके अध्यक्ष थे। इस मोर्चे में जनता दल, तेलगु देशम पार्टी, डीएमके और असम गण परिषद जैसी पार्टियां शामिल थीं। इससे पहले वीपी सिंह ने 11 अक्टूबर 1988 को अपने संगठन जन मोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस (एस) को मिलाकर ‘जनता दल’ नाम की पार्टी बनाई थी।
कांग्रेस की बुरी तरह हुई थी पराजय:
इस मोर्चे ने तब एक सीट पर एक ही उम्मीदवार खड़ा किया था। चुनाव में कांग्रेस की जबर्दस्त हार हुई थी। उसे 217 सीटों का नुकसान हुआ था। पांच साल पहले प्रचंड बहुमत लाने वाली कांग्रेस 197 सीटों पर सिमट गई थी। हालांकि, जनता दल ने 123 सीटों का फायदा पाते हुए कुल 143 सीटें जीती थीं, जबकि उसकी सहयोगी पार्टियों ने कोई ज्यादा कमाल नहीं किया था।
राष्ट्रीय मोर्चा पर दुनियाभर की नजरें थीं:
1989 के आम चुनावों की निगरानी सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में की गई थी। ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि तब वीपी सिंह को राजीव गांधी के लिए बड़ी चुनौती के रूप में देखा गया था, जिन्होंने बोफोर्स दलाली के नाम पर राजीव गांधी सरकार से इस्तीफा दे दिया था। इस चुनाव में जीत के बाद वीपी सिंह की अगुवाई में नेशनल फ्रंट सरकार बनी थी। सरकार को उदारवादियों, वामपंथियों और दक्षिणपंथी लोगों का अनोखा मिश्रण कहा गया था। बीजेपी ने उस सरकार को बाहर से समर्थन दिया था।
[ad_2]